सुहाना सा कोहरा छाया रहता था उन दिनों
मूल मराठी काव्य: श्वेता पाटोळे(ले)
सुहाना सा कोहरा छाया रहता था
उन दिनों
हमारें दरमियाँ |
नाम-पता-रंग-ढंग की जब
कोई संभावना न थी...
आपस में पाए चंद निशानों से लिपटा कोहरा |
उम्मीदभरा,
दिलचस्प, गुलाबी,
गहरा, बेकरार-सा, दिलकश...
'मेरेपन'की, 'तुम्हारेपन'की
सारीं परिधिओं को समा लेने वाला;
जाने पहचाने से भुलावों में ला कर
हठात् अनजान बन जाने वाला;
कुछ कुछ समझा सा लगने पर
उलझने-उलझाने वाला |
अज्ञात के साथ चलते
चल रही खुद की तलाश |
नए सिरे से हो रहा खुद का परिचय |
शायद तुम मौजूद थे उस तलाश में
या एहसास था बस, तुम्हारे मौजूदगी का |
तुमने भी नए सिरे से पाया खुद को, शायद,
मेरे मौजूदगी के एहसास में |
फिर न जाने कब, किस पल से
तुम्हारा परिचय
खुद के परिचय से
ज्यादा ज़रूरी हो बैठा..?
क्यों सब कुछ आज़माया, लाख कोशिशें की
इस परिचय को पाने की?
हम्म..?
..आखिरकार
हमारी जान-पहचान हो गई |
पर ठीक उसी वक़्त छट गया,
पिघल गया वो कोहरा |
पाएं जा सकते थे
जो रुख़ नए -
गुम गए, कोहरे की ही तरह...
आज भी हम साथ चल रहें हैं,
पर अब कोई प्रत्याशा नहीं,
दिल में कोई हलचल नहीं मचती,
खुद के बारे में कुछ नया
मालूम नहीं होता अब...
कभी-कबार तुम्हें देखती हूँ तो बस यूँही ख़याल आता है -
सुहाना था वो कोहरा, जो बना रहता था
हमारें दरमियाँ...
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