दिन के चक्कर में
* ईमेल-खाता बदल देने कि वजह से पुरानी पोस्ट फिर से प्रकाशित कर रही हूँ | *
दिन के चक्कर में पड़ गया तो मथ जाता हूँ दोपहर तक।
रसोई में खड़ा पाता हूँ मंदार पर्वत को, जिसे मेरे यहाँ "जज़्ब" कहते हैं - खाना ठीक से चबाने का जज़्ब।
पर्वत लाँघते ही झपकी लूँगा तो पाचन में बाधा होगी। कुछ काम ही निपटा लूँ, शाम को आराम करेंगे।
शाम होती है, चाय बनती है, आराम की तलब छन्ने में रह जाती है।
रात को पता चलता है, घर में नींद नहीं है।
"साढ़े नौ"
"दस तैंतालीस"
"सवा ग्यारा"
"आठ कम बारा"
पड़ोसियों के दरवाज़े खटखटाता हूँ कटोरी ले कर, कि नींद का जामन दे दे कोई।
जमाकर फ्रीज़ में रख लूँ
रोज़ थोड़ा-सा चख लूँ।
नींद ने मुँह फेर लिया है मुझ से, औरत की तरह।
अब बिस्तर की चिता में जलता हूँ
आदतन् फिर से जनमता हूँ
फिर दिन के चक्कर में पड़ता हूँ।
- मुक्ता 'असरार'
© मुक्ता असनीकर
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