कितना कुछ
* ईमेल-खाता बदल देने कि वजह से पुरानी पोस्ट फिर से प्रकाशित कर रही हूँ। *
ख़ाली बर्तन सी रात
दूध सी उबाल हमारी बातों में
और खटाई समय की|
झीनी परत बिछी है अज्ञात की|
हम चाहते हैं छेना रह जाए
बस, पानी बह जाए|
कितना कुछ किया जा सकता है इस कितनेकुछ के साथ:
गूँधकर, गोल बना कर चाशनी में उबाला जा सकता है|
ग्रेवी में डाला जा सकता है निचुड़ा हुआ काट कर,
या भरा जा सकता है पकौड़ों में
जो तलने का मूड हो तुम्हारा|
खाया जा सकता है यूँही खड़े-खड़े,
बहस करते करते|
'नेट पे देखो न...'
'हम्म..... वाइफाइ नहीं चल रहा|'
'अरे? अभी तो चल रहा था|'
'तो तुम ही देख लो न|'
'फोन चार्ज हो रहा है बेडरूम में| बैटरी लगभग ख़त्म हो चुकी थी|'
'...पराठें बना दूँ? क्या कहती हो?'
'...नहीं नहीं, पुलाव मुझे पसंद नहीं|'
'...सुबह की बची हुई सब्जी के साथ मिला लें?'
जो भी हो,
बहतर होगा यदि कितनाकुछ ताज़ा खा लें|
- मुक्ता 'असरार'
© मुक्ता असनीकर
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