उत्तम कांबले द्वारा लिखित मराठी लेख से साभार
उत्तम कांबले द्वारा लिखित मराठी लेख से साभार -
हिंदी भाषांतर: मुक्ता 'असरार'
...सड़क-किनारे जुगाड़ी हुई रसोई में बेघर बुढ़िया चूल्हा जला रही थी | मैं रुका | कुछ ढीठ बनकर कैमरा निकाला, दो-चार तस्वीरें खींची | फ्लैश
और आंच की रोशनी में उसका मुख पलभर के लिए उजागर हुआ | वह खिलखिलाकर हँस
पड़ी - प्रसन्नता भरी थी वो हँसी, फिर भी दिल दहला गई | पूछा उस से: "आप को क्या लगता है, अच्छे दिन कब आएंगे? क्या आप के अच्छे दिन आए हैं?"
"वो क्या होता है?" जवाब में उसने सवाल थमा दिया |
मैं: जी, वो प्रधानमंत्री श्री. मोदी ने दिल्ली में -
बुढ़िया: कौन मोदी?
मैं: हमारे देश के प्रधानमंत्री |
बुढ़िया: ये 'प्रधानमंत्री' क्या होता है?
मैं: कुछ नहीं, रहने दीजिए | आप को राशन वगैरह तो मिलता होगा? रोज़गार मिलता है?
बुढ़िया:
देख बेटा, गोधूलि बेला में झूठ नहीं बोलूंगी | हाथ में अन्न है मेरे, इस
की क़सम खा कर कहती हूँ - मैं किसी से फूटी कौड़ी तक उधार या मुफ़्त नहीं
लेती |
मैं: मेरा मतलब है, सरकार से कुछ तो मिलता होगा?
बुढ़िया: काहे की सरकार? ग़रीबों की कोई सरकार नहीं होती | सब आप जैसे लोगाों के मुठ्ठी में होता है |
इतना कहकर उसने तवे पर पकने वाली रोटी पलटी, दूसरी लोई बेलने लगी |
उँगलियाँ धँसाकर लसलसे आटे में खो गई बुढ़िया |
वस्तुतः
अच्छे दिनों का वादा करने वाले मोदी पहले आदमी नहीं | श्रीमती इंदिरा
गांधी ने 'ग़रीबी हटाओ' का नारा लगाकर लाल किले जितना उँचा वोटों का ढेर
लगाया था | मोदी ने बस नाम बदला, नारे बदले | उन्होंने भी ढेर सारे वोट
बटोरे |
मज़े
की बात है - हमारा सारा राजनैतिक कार्य-कौशल, सारे दांव-पेंच ग़रीबी के
मुद्देपर केंद्रित होने के बावजूद ग़रीबों के जीवन में कभी कोई मौलिक,
क्रांतिकारी बदलाव नहीं आता |
मुफ़लिसी
से छुटकारा पाने की लड़ाई में गाँव खाली हो रहे हैं, शहर जनाकुल हो रहे हैं
| आज भी बम्बई के फुटपाथों पर तक़रीबन एक से डेढ़ करोड़ लोगों का बसेरा
रहता है और भारत 'महासत्ता' होने चला है |
सब ठीक नहीं है, कहीं तो कुछ गड़बड़ है|
असल
समस्या क्या है? - शायद सड़क पर चूल्हा जलाने वाली वह औरत जानती हो, पर हम
बूझ नहीं पा रहे | बुढ़िया 'संपर्क क्षेत्र से बाहर' है, और सारा का सारा
टौकटाइम हमारी जेब में है |
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